मंगलवार, 20 मई 2014

संस्कृत के साहित्यकार एवं प्रसिद्ध कृति


साहित्यकारप्रसिद्ध कृतिरचनाकाल
भरत मुनिनाट्यशास्त्रम्प्रथम शती
भामहकाव्यालङ्कारसप्तम शतक
दण्डीकाव्यादर्शसप्तम शती
उद्भटकाव्यालङ्कारसारसङ्ग्रहअष्ठम शती
वामनकाव्यालङ्कारसूत्रवृत्तिअष्ठम शती
रुद्रटकाव्यालङ्कारनवम शती
आनन्दवर्धनध्वन्यालोकनवम शती
राजशेखरकाव्यमीमांसादशम शती
भट्टनायकहृदयदर्पणदशम शती
अभिनवगुप्तअभिनवभारती,लोचनं चदशम शती
धनञ्जयदशरूपकम्दशम शती
भोजसरस्वतीकण्ठाभरणम्,शृङ्गारप्रकाशएकादश शती
महिमभट्टव्यक्तिविवेकएकादश शती
क्षेमेन्द्रऔचित्यविचारचर्चाएकादश शती
मम्मटकाव्यप्रकाशएकादश शती
रुय्यकअलङ्कारसर्वस्वम्द्वादश शती
हेमचन्द्रकाव्यानुशासनम्द्वादश शती
जयदेवचन्द्रालोकत्रयोदश शती
विद्यानाथएकावलीत्रयोदश शती
विद्यानाथप्रतापरुद्रीयम्त्रयोदश शती
विश्वनाथसाहित्यदर्पणत्रयोदश शती
केशवमिश्रअलङ्कारशेखरषोडश शती
अप्पयदीक्षितकुवलयानन्द तथा चित्रमीमांसाषोडश शती
जगन्नाथरसगङ्गाधरसप्तदश शती
चूडामणिदीक्षितकाव्यदर्पणसप्तदश शती

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012


स्वप्नवासदत्ता

(भास)


स्वप्नवासवदत्ता

, महाकवि भास का प्रसिद्ध संस्कृत नाटक है।

कथानक

पुरुवंशीय उदयन वत्स राज्य के राजा थे। उनकी राजधानी का नाम कौशाम्बी था। उन्हीं दिनों अवन्ति राज्य, जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी, में प्रद्योत नाम के राजा राज्य करते थे। महाराज प्रद्योत एक अत्यन्त विशाल सैन्य-बल के स्वामी थे इसलिये उन्हें महासेन के नाम से भी जाना जाता था। महाराज उदयन के पास घोषवती नामक एक दिव्य वीणा थी। उनका वीणा-वादन अपूर्व था। एक बार प्रद्योत के अमात्य शालंकायन ने छल करके उदयन को कैद कर लिया। उदयन के वीणा-वादन की ख्याति सुनकर प्रद्योत ने उन्हे अपनी पुत्री वासवदत्ता के लिये वीणा-शिक्षक नियुक्त कर दिया। इस दौरान उदयन और वासवदत्ता मे मध्या एक दूसरे के प्रति आसक्ति जागृत हो गई।

इधर उदयन के मन्त्री यौगन्धरायण उन्हें कैद से छुड़ाने के प्रयास में थे। यौगन्धरायण के चातुर्य से उदयन, वासवदत्ता को साथ ले कर, उज्जयिनी से निकल भागने में सफल हो गये और कौशाम्बी आकर उन्होंने वासवदत्ता से विवाह कर लिया। उदयन वासवदत्ता के प्रेम में इतने खोये रहने लगे कि उन्हें राज-कार्य की सुधि ही नहीं रही। इस स्थिति का लाभ उठा कर आरुणि नामक उनके क्रूर शत्रु ने उनके राज्य को उनसे छीन लिया। आरुणि से उदयन के राज्य को वापस लेने के लिये उनके मन्त्री यौगन्धरायण और रुम्णवान् प्रयत्नशील हो गये। किन्तु बिना किसी अन्य राज्य की सहायता के आरुणि को परास्त नहीं किया जा सकता था। वासवदत्ता के पिता प्रद्योत उदयन से नाराज थे और यौगन्धरायण को उनसे किसी प्रकार की उम्मीद नहीं थी।

यौगन्धरायन को ज्योतिषियों के द्वारा पता चलता है कि मगध-नरेश की बहन पद्मावती का विवाह जिन नरेश से होगा वे चक्रवर्ती सम्राट हो जायेंगे। यौगन्धरायण ने सोचा कि यदि किसी प्रकार से पद्मावती का विवाह उदयन से हो जाये तो उदयन को अवश्य ही उनका वत्स राज्य आरुणि से वापस मिल जायेगा साथ ही वे चक्रवर्ती सम्राट भी बन जायेंगे।

यौगन्धरायन महाराज उदयन के विवाह पद्मावती से करवा देने की अपनी योजना के विषय में वासवदत्ता को बताया। पति की मंगलकामना चाहने वाली वासवदत्ता इस विवाह के लिये राजी हो गईं। किन्तु यौगन्धरायण भलीभाँति जानते थे कि उदयन अपनी पत्नी वासवदत्ता से असीम प्रेम करते हैं और वे अपने दूसरे विवाह के लिये कदापि राजी नहीं होंगे। अतएव उन्होंने वासवदत्ता और एक अन्य मन्त्री रुम्णवान् के साथ मिलकर एक योजना बनाई। योजना के अनुसार उदयन को राजपरिवार तथा विश्वासपात्र सहयोगियों के साथ लेकर आखेट के लिये वन में भेजा गया जहाँ वे सभी लोग शिविर में रहने लगे। एक दिन, जब उदयन मृगया के लिये गए हुए थे, शिविर में आग लगा दी गई। उदयन के वापस लौटने पर रुम्णवान ने उन्हें बताया कि वासवदत्ता शिविर में लगी आग में फँस गईं थीं और उन्हें बचाने के लिये यौगन्धरायण वहाँ घुसे जहाँ पर दोनों ही जल मरे। उदयन इस समाचार से अत्यन्त दुःखी हुए किन्तु रुम्णवान तथा अन्य अमात्यों ने अनेकों प्रकार से सांत्वना देकर उन्हें सम्भाला।

इधर यौगन्धरायन वासवदत्ता को साथ लेकर परिव्राजक के वेश में मगध राजपुत्री पद्मावती के पास पहुँच गए और प्रच्छन्न वासवदत्ता (अवन्तिका) को पद्मावती के पास धरोहर के रूप में रख दिया। अवन्तिका पद्मावती की विशेष अनुग्रह पात्र बन गईं। उन्होंने महाराज उदयन का गुणगान कर कर के पद्मावती को उनके प्रति आकर्षित कर लिया।

उदयन दूसरा विवाह नहीं करना चाहते थे किन्तु रुम्णवान् ने उन्हें समझा-बुझा कर पद्मावती से विवाह के लिये राजी कर लिया। इस प्रकार उदयन का विवाह पद्मावती के साथ हो गया। विवाह के पश्चात मगध-नरेश की सहायता से उदयन ने आरुणि पर आक्रमण कर दिया और उसे परास्त कर अपना राज्य वापस ले लिया। अन्त में अत्यन्त नाटकीय ढंग से यौगन्धरायण और वासवदत्ता ने स्वयं को प्रकट कर दिया। यौगन्धरायण ने अपनी धृष्टता एवं दुस्साहस के लिये क्षमा निवेदन किया।

इस नाटक के एक दृश्य में उदयन समुद्रगृह में विश्राम करते रहते हैं। वे स्वप्न मेंहा वासवदत्ता’, ‘हा वासवदत्ता’ पुकारते रहते हैं उसी समय अवन्तिका (वासवदत्ता) वहाँ पहुँच जाती हैं। वे उनके लटकते हुये हाथ को बिस्तर पर रख कर निकल जाती हैं किन्तु उसी समय उदयन की नींद खुल जाती है। वे निश्चय नहीं कर पाते कि उन्होंने वास्तव में वासवदत्ता को देखा है अथवा स्वप्न में। इसी घटना के के कारण नाटक का नामस्वप्नवासवदत्ता’ रखा गया।


वेणीसंहार(भट्टनारायण)

भट्ट नारायण

 संस्कृत के महान नाटककार थे। वे अपनी केवल एक कृति वेणीसंहार के द्वारा संस्कृत साहित्य में अमर हैं। संस्कृत वाङ्मय में समुपलब्ध नाटकों में इसका विशिष्ट स्थान है। विद्वज्जन इसे नाट्यशास्त्र के सिद्धांतों के अनुकूल दृष्टिकोण से लिखा गया नाटक मानते हैं इसीलिए इसके उदाहरणों को अपने लक्षणग्रंथों में वामन, विश्वनाथ आदि ने विशेष रूप से उद्धृत किया है।

जीवन वृत्त

भट्ट नारायण का जीवनवृत्त अनिश्चित है किंतु वामन और आनंदवर्धनाचार्य के ग्रंथों में वेणीसंहार के उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि यह उनसे पूर्ववर्ती हैं। वामन का समय बेल्वल्कर ने सप्तम शताब्दी का अंतिम भाग स्वीकृत किया है। इस प्रकार नारायण अष्टम शताब्दी से पूर्व के सिद्ध होते हैं। विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर की पारिवारिक परंपरा में यह बात स्वीकृत की जाती है कि सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में बंगाल के राजा आदिशूर ने इनको कान्यकुब्ज से बुलवाया था। आदिशूर ने बंगाल में पाल वंश से पूर्व राज्य किया था।

वेणीसंहार का परिचय

वेणीसंहार की कथावस्तु महाभारत से ली गई है। महाभारत के द्यूत प्रसंग में पांचाली द्रौपदी का भरीसभा में दु:शासन के द्वारा घोर अपमान हुआ था। दुर्योधन आदि की आज्ञा से दु:शासन उसे केश पकड़कर घसीट लाया था जिसपर उसने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक इस अपमान का बदला नहीं चुकाया जाएगा, मैं अपने इन केशों को नहीं बाँधूगी। बलशाली भीम ने उसकी यह प्रतिज्ञा पूर्ण की और दु:शासन का वध कर रुधिर से रंगे हुए हाथों से द्रोपदी की वेणी गूँथी जिससे उसका हृदय शांत हुआ। भट्ट नाररायण ने इस कथानक को परम रमणीय नाटक के रूप में प्रस्तुत किया है। उनके निशाचित्रण इतने सजीव हैं कि उनको मनीषिवर्ग ने "निशानारायण" की उपाधि से अलंकृत किया है। नाटकीय सिद्धांतों के निदर्शन का विशेष लक्ष्य होने के कारण ही यद्यपि इसमें गतिशीलता का अभाव माना गया है तथापि इसके पद्यों में रौद्र का जो सरस प्रवाह है वह सहृदय को प्रगतिशील बनाने के लिए पर्याप्त है।